Laghu Kathaye 1

इस पुस्तक की कहानियाँ देवायण से ली गई हैं, जो भारत का तीसरा और अल्प ज्ञात महाकाव्य है, योगी श्री अरविंद के युवा अनुयायी डा. हजारी द्वारा लिखा गया था। यह काल के चार युगों की कहानी कहता है - त्रेता युग (रजत युग), द्वापर युग (कांस्य युग), कलि युग (लौह युग, जिसमें हम रह रहे हैं) और सत्य युग या स्वर्णिम युग।

महाकाव्य में काव्य के बारह हजार से अधिक पृष्ठ हैं जो बारह खंडों में विभाजित हैं। पहले, इसे बंगला में लिखा गया था, तब इसका लिप्यांतर अमिता नथवाणी द्वारा हिंदी/संस्कृत में किया गया, जिनकी माताजी डा. इन्दिरा सरदाना, भारत के पूर्वी तट पर स्थित, अरविन्द आश्रम में एक भक्त थी। उन्हें गंभीर हृदय रोग हो गया था जिसे एक होम्योपैथिक डॉक्टर, डॉ. हजारी ने ठीक कर दिया। जब उन्होंने उनसे देवायण के बारे में सुना तो इसे पूरे संसार के सामने प्रकट करने के लिए दृढ़ निश्चय कर लिया।

डा. हजारी के सामने यह इस तरह प्रकट हुआ था।1

अंधेरी रात थी। हवा स्तब्ध थी। लगता था कि साधारणतः चंचल रहने वाला समुद्र भी सो गया था। यह 1951 की वसंत ऋतु थी और विश्व अब भी भयानक युद्ध से आहत और सदमें में था। नए अस्त्रों का आविष्कार हुआ था और पूरे के पूरे नगर नष्ट कर दिए गए थे। लाखों व्यक्ति मारे गए थे। फिर भी, जिन देशों ने साथ मिल कर युद्ध किया था, अब वे एक-दूसरे के विरुद्ध हो गए थे और विश्व सर्वनाश के संकट में था।

पृथ्वी से बहुत ऊपर, ब्रहामांड की छोर पर, दिव्य कवि पिंगल महेश्वर के रूप में, भगवान शिव श्री अरविंद से मिले, जिन्होंने चार महीने पहले मर्त्यलोक का त्याग किया था।

‘हे महादेव, क्या अच्छाई और बुराई की लड़ाई अंतहीन होगी?’ श्री अरविंद ने पूछा।

‘हाँ’ शिव ने गुरु-गंभीर स्वर में कहा। ‘परंतु मैं समझता हूँ कि एक बार मुझे हस्तक्षेप करते हुए अच्छाई का पलड़ा भारी करना चाहिए। मैं संसार को एक नए महाकाव्य के रूप में एक संदेश भेजूंगा, और इसमें तुम मेरी सहायता कर सकते हो।’

‘मुझे केवल इतना बताइए कि मैं कैसे सहायता कर सकता हूँ।’ श्री अरविंद ने उत्तर दिया। 

‘मुझे एक मानव संदेशवाहक चाहिए,’ महादेव ने समझाते हुए कहा, ‘जिसमें देवताओँ और वेदों के पौराणिक तथ्यों के प्रति विश्वास और गहरी आस्था हो।’

‘हम आश्रम में देख सकते हैं जहाँ लोग मुझे एक गुरु के रूप में सम्मान और स्नेह करते थे। वहाँ कई अच्छे भक्त हैं जिनमें से आप किसी एक को चुन सकते हैं।’

सुबह के दो बजे थे और सभी आश्रमवासी गहरी नींद में थे। 

भगवान ने ‘ऊँ’ का उच्चारण किया और गुरु ने इसकी प्रतिध्वनि की –‘ओ..........म।’

परंतु ब्रह्मांड का यह शाश्वत शब्द भी सोने वालों को जगाने के लिए काफी नहीं था। श्री अरविंद को बड़ी निराशा हुई परंतु भगवान शिव ने उन्हें सांत्वना दी।  

‘एक बार जब मैं यहाँ आया था, तो मैंने देखा कि एक नवयुवक छत पर गहरे ध्यान में बैठा था’ उन्होंने कहा, ‘मैंने उसके मन में प्रवेश किया परंतु मेरे महान बल ने भी उसे अन्यमनस्क नहीं किया। आप उसे पुकारिए।’

‘ओ............म,’ गुरु ने फिर गाया।  

नवयुवक, डा. हजारी भी गहरी नींद में सोए हुए थे, परंतु अपने प्रिय गुरु का स्वर सुन कर वह जग गए।

‘मेरे पुत्र, स्वयं भगवान शिव ने तुम्हें अपने संदेश-वाहक के रूप में चुना है।’

डा. हजारी ने देखा कि उनके चारो ओर तारे विस्फोट कर रहे थे और बीच में चकाचौंध करने वाले प्रकाश में शिव की चमकती आकृति थी।

‘अकेले मुझमें पर्याप्त शक्ति नहीं है,’ उन्होंने श्री अरविंद से कहा, ‘परंतु आप मेरे साथ, मेरे अंतर्मन में रहिए और आप अपनी इच्छा के अनुसार मेरे शरीर का उपयोग कीजिए।’

भगवान शिव जानते थे कि बहुत सारे वर्षों के दौरान ध्यान और अर्चना द्वारा श्री अरविंद ने महान शक्तियाँ विकसित की थीं, ‘एवमस्तु,’ वे सहमत हो गए।

श्री अरविंद ने अपने युवा शिष्य के ललाट का चुंबन किया और डा. हजारी ने अपने चेहरे पर उल्लास का प्रपात बहता अनुभव किया। हजारों प्रदीपों की ऊर्जा उनके शरीर से हो कर प्रवाहित होने लगी और उन्हें भगवान शिव की इच्छा के अनुसार कार्य करने के लिए शक्ति प्राप्त हो गई।

परंतु श्री अरविंद को अब भी भय था कि यह कार्य बहुत बड़ा था और एक व्यक्ति द्वारा पूरा किए जाने के लिए बहुत लंबा था। ‘मानव-जीवन संक्षिप्त है,’ उन्होंने भगवान शिव को स्मरण दिलाया, ‘क्या आप अपने संदेश-वाहक को कुछ और सहायता उपलब्ध नहीं करा सकते?

अतः भगवान शिव ने, गणेश गजानन का स्मरण किया, जो विघ्न-विनाशक के रूप में विख्यात हैं, और मनुष्य उन्हें तब स्मरण करते हैं जब उन्हें कोई कठिन कार्य पूरा करना होता है। गणेश आ गए और डा. हजारी ऐसा साहचर्य पा कर प्रसन्नता से गदगद हो उठे।

उसी पल से उन्होंने उन दिव्य शब्दों को लिखना आरंभ किया जो उनके पास अकस्मात ऊपर से आ रहे थे। प्रत्येक रात, वे दस पृष्ठ लिखते और 1954 के मध्य में, केवल तीन वर्ष और चार महीनों में, महाकाव्य पूरा हो गया।

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